छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों से ताल्लुक रखने वाले मराठी भाषी नागरिकों के एक समूह ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर राज्य में अपनी भाषाई अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता की मांग की है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह कदम उनकी सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने और संविधान में प्रदत्त अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है।
यह याचिका मुख्य रूप से रायपुर, दुर्ग, भिलाई और बिलासपुर क्षेत्रों के मराठी भाषी नागरिकों द्वारा दायर की गई है। उन्होंने चिंता व्यक्त की कि स्वतंत्रता पूर्व औद्योगिक विस्तार के समय से राज्य में बसे रहने और सामाजिक-आर्थिक योगदान देने के बावजूद उनकी भाषा और सांस्कृतिक विरासत को सरकारी नीतियों में पर्याप्त मान्यता नहीं मिली है।
याचिकाकर्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 का हवाला देते हुए कहा कि अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित करने और अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार प्राप्त है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा मिल जाता है तो वे मराठी माध्यम के स्कूल स्थापित कर सकेंगे, प्रशासनिक निर्णयों में अपनी भागीदारी बढ़ा सकेंगे और अपनी परंपराओं को संरक्षित रख सकेंगे।
“हम विभाजन नहीं चाहते — हम मान्यता चाहते हैं। हमारे इस राज्य में गहरे जड़ें हैं। यह न तो प्रवासन का मामला है और न ही राजनीति का। यह हमारी आत्मा को बचाने का प्रयास है,” एक याचिकाकर्ता ने कहा।
हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार कर ली है और आगामी सुनवाइयों में ऐतिहासिक प्रवासन रिकॉर्ड, भाषाई जनगणना डेटा और शैक्षणिक आँकड़ों की समीक्षा की जाएगी। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस याचिका का फैसला उन अन्य राज्यों के लिए भी मिसाल बन सकता है, जहाँ भाषाई अल्पसंख्यकों को औपचारिक मान्यता नहीं मिली है।
आज भी मराठी समुदाय अपने त्योहारों, साहित्य और परंपराओं को स्थानीय स्तर पर मनाते हैं, लेकिन उनका कहना है कि बिना कानूनी मान्यता के उनकी कोशिशें अनौपचारिक ही रह जाती हैं और सरकारी नीतियों में उन्हें अक्सर नज़रअंदाज कर दिया जाता है।
अगर मान्यता मिलती है तो यह न केवल मराठी समुदाय के लिए बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में भाषाई अधिकारों के लिए एक अहम मोड़ साबित हो सकता है।