भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498ए को 1983 में विवाहिता महिलाओं को उनके पति और ससुराल वालों द्वारा की जाने वाली क्रूरता और उत्पीड़न से बचाने के लिए लागू किया गया था। यह धारा गैर-जमानती, गैर-समझौता योग्य और संज्ञेय है, जिसका अर्थ है कि शिकायत दर्ज होते ही पुलिस वारंट के बिना आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है। हालांकि, इस कानून का उद्देश्य महिलाओं को घरेलू हिंसा और दहेज उत्पीड़न से बचाना है, लेकिन इसके दुरुपयोग ने कई निर्दोष व्यक्तियों के लिए गंभीर परिणाम दिए हैं।
पिछले कुछ वर्षों में, यह देखा गया है कि कुछ महिलाओं ने व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने, पति और ससुराल वालों को परेशान करने, या धन और संपत्ति वसूलने के लिए धारा 498ए का दुरुपयोग किया है। इस कानून के कठोर प्रावधान, जो तुरंत जमानत नहीं देते और केस को वापस लेने की अनुमति नहीं देते, के परिणामस्वरूप आरोपी को ट्रायल शुरू होने से पहले ही जेल में समय बिताना पड़ता है। इससे न केवल कानून के मूल उद्देश्य को कमजोर किया गया है, बल्कि आरोपी और उनके परिवारों के लिए गंभीर भावनात्मक, सामाजिक और आर्थिक संकट भी उत्पन्न हुआ है।
धारा 498ए के दुरुपयोग से जुड़े कुछ उल्लेखनीय मामले न्यायिक प्रणाली की गंभीरता को उजागर करते हैं।
साल 2005 में सुशील कुमार शर्मा बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार यह माना कि धारा 498ए का गलत इस्तेमाल गंभीर समस्या बन चुका है। कोर्ट ने इसे “हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला कानून” बताया और सरकार से इसे नियंत्रित करने के लिए उपाय करने की मांग की।
अर्णेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि धारा 498ए के तहत दायर कई शिकायतें निराधार थीं। कोर्ट ने गिरफ्तारी के लिए कड़े दिशानिर्देश जारी किए और प्रारंभिक जांच की आवश्यकता पर जोर दिया।
राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2017) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि झूठे आरोप समाज के लिए एक गंभीर समस्या बन गए हैं। कोर्ट ने परिवार कल्याण समितियों के गठन का निर्देश दिया, जो धारा 498ए के तहत दर्ज शिकायतों की जांच करेंगी।
इन मामलों के अलावा, कई निर्दोष व्यक्तियों और उनके परिवारों को झूठे आरोपों के कारण अपूरणीय क्षति हुई है।
दिल्ली में, दीपक कुमार और उनके परिवार पर दहेज उत्पीड़न का झूठा आरोप लगाया गया। इस आरोप के कारण उनके बुजुर्ग पिता की गिरफ्तारी हुई, जो जेल से जमानत मिलने के तुरंत बाद दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।
उत्तर प्रदेश के निवासी विष्णु तिवारी को 2001 में झूठे दहेज उत्पीड़न और बलात्कार के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाई गई। 2021 में, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में उन्हें दोषमुक्त कर दिया, लेकिन उन्होंने जेल में अपने जीवन के 20 साल खो दिए।
बेंगलुरु में, अतुल सुभाष ने लगातार उत्पीड़न और झूठे मामलों के कारण आत्महत्या कर ली। अपनी विस्तृत सुसाइड नोट और वीडियो में उन्होंने न्यायिक प्रणाली की खामियों को उजागर किया, जिसमें उन्होंने झूठे आरोपों के कारण हुई मानसिक पीड़ा का जिक्र किया।
धारा 498ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए न्यायपालिका और विधायिका ने कई कदम उठाए हैं।
- सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी से पहले प्रारंभिक जांच को अनिवार्य बनाया है।
- परिवार कल्याण समितियों का गठन किया गया है, जो शिकायतों का सत्यापन करती हैं।
- गृह मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों को गिरफ्तारी के लिए सख्त प्रोटोकॉल का पालन करने का निर्देश दिया है।
धारा 498ए का दुरुपयोग रोकने के लिए कानून में संशोधन के प्रस्ताव भी आए हैं। इसे जमानती और समझौता योग्य बनाने की सिफारिश की गई है ताकि झूठे मामलों को आसानी से वापस लिया जा सके। हालांकि, इस पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिली हैं।
समाज और न्यायिक प्रणाली के लिए यह आवश्यक है कि धारा 498ए का सही उद्देश्य बनाए रखा जाए और निर्दोष व्यक्तियों को अनुचित उत्पीड़न से बचाया जाए। शिकायतों की सख्त जांच, झूठे आरोपों के प्रति जागरूकता अभियान, और न्यायिक दिशानिर्देशों का पालन करना इसके लिए जरूरी कदम हो सकते हैं।
यह संतुलित दृष्टिकोण ही धारा 498ए को महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने और निर्दोष व्यक्तियों को न्याय दिलाने में मदद कर सकता है।