बिहार में आयोजित वोटर अधिकार यात्रा के दौरान डीएमके (DMK) नेता एम.के. स्टालिन का भाषण बड़े विवाद में बदल गया है। स्टालिन ने सभा को तमिल भाषा में संबोधित किया और उसका हिंदी अनुवाद कांग्रेस युवा विंग के सदस्य अलीम अलबुखारी ने किया। लेकिन इस दौरान बिहार की स्थानीय भाषाओं—मैथिली और भोजपुरी—को पूरी तरह नज़रअंदाज कर दिया गया, जिससे स्थानीय लोगों और राजनीतिक विश्लेषकों में नाराज़गी बढ़ गई।
डीएमके हमेशा से तमिल अस्मिता और हिंदी थोपने के विरोध की राजनीति करती रही है। मगर बिहार की धरती पर तमिल भाषण और उसका केवल हिंदी अनुवाद कई लोगों को असंवेदनशील और असम्मानजनक लगा। स्थानीय राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रंजन मिश्रा ने कहा, “तमिलनाडु में यह पार्टी भाषाई अस्मिता की रक्षा का दावा करती है, लेकिन बिहार में यहां की भाषाओं को ही नज़रअंदाज कर दिया। यह केवल विडंबना नहीं, बल्कि अपमान है।”
यह विवाद केवल भाषाई असंवेदनशीलता तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पुराने घावों को भी कुरेद गया। वर्ष 2023 में डीएमके सांसद दयानिधि मारन ने एक विवादित बयान में कहा था कि “बिहार और उत्तर प्रदेश से आए प्रवासी तमिलनाडु में शौचालय साफ करते हैं।” उस बयान पर बाद में सफाई दी गई थी, लेकिन बिहारियों के बीच उसकी याद आज भी ताज़ा है। अब स्टालिन का भाषण, जिसमें स्थानीय भाषाओं की जगह तमिल और हिंदी का प्रयोग किया गया, कई लोगों के लिए उसी असम्मानजनक रवैये की कड़ी जैसा लगा।
सभा में मौजूद लोगों ने भी अपनी नाराज़गी व्यक्त की। दरभंगा के मैथिली भाषी सुमन झा ने कहा, “तमिलनाडु में ये लोग भाषा के सम्मान की बात करते हैं, लेकिन हमारी भाषा को इन्होंने मंच पर जगह भी नहीं दी। यह कैसा सम्मान है?” वहीं भोजपुरिया भाषी राजेश कुमार ने कहा, “हम वोटर अधिकारों पर सुनने आए थे, लेकिन कुछ समझ ही नहीं पाए। हिंदी अनुवाद भी औपचारिक लग रहा था, हमारी भाषा में क्यों नहीं बताया गया?”
अनुवादक अलीम अलबुखारी ने भाषण को हिंदी में तो पेश किया, लेकिन स्थानीय बोली और लहजे से उनकी अनभिज्ञता साफ दिखी। इससे लोगों को और भी दूरी महसूस हुई।
भाषाविद् डॉ. मीरा झा ने कहा, “भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि अपनी पहचान और जुड़ाव का प्रतीक है। जब किसी भाषा की अनदेखी होती है, तो यह संदेश जाता है कि कुछ आवाज़ें कम महत्व रखती हैं।”
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह घटना उन राष्ट्रीय दलों के लिए सीख है जो पूरे देश में अभियान चलाते हैं। स्थानीय संस्कृति और भाषाओं को सम्मान दिए बिना एकता का संदेश अधूरा रहेगा। डीएमके जैसी पार्टी, जो खुद भाषाई अस्मिता पर राजनीति करती है, उसे बिहार की इस घटना से सबक लेने की ज़रूरत है।